किसमे ढालें पीढ़ीयों को, संच भी नहीं,
जगह किसी के दिल में, दो इंच भी नहीं !
मचान सजा लिए, सबने अपने-अपने,
मिल बैठ बतियाने को, मंच भी नहीं !
परमेश्वर बने कैसे, अब पंचायतों में,
सच्चे मन का कोई, पंच भी नहीं !
मुठ्ठी-मुठ्ठी लूटकर, भर ली कोठियाँ,
गम फिर भी उनको, है रंच भी नहीं !
दर छोड़ दामिनी को, भेजूँ किसके संग,
खरा खट्ट आदमी, एक टंच भी नहीं !
..........................(मोह
बहुत सुन्दर भाई साहब
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