Tuesday 6 September 2016

गुजरात प्रवास

#गुजरात_प्रवास (भाग-१)
सड़क मार्ग से गुजरात प्रवास पर जाते समय रास्ते में सरस्वती विद्या प्रतिष्ठान के वाहन चालक श्री सुखदेव सिसोदिया का गाँव जामन्या (निवाली-बड़वानी) पड़ता है | सुखदेव भाई का आग्रह था कि दोपहर का भोजन घर पर करेंगे | हम दो गाड़ियों में Niranjan Sharma जी, बुधपाल सिंह जी, Gopal Soni जी,Roopsingh Lohane जी तथा हुकुमचंद भुवंता जी सहित आठ लोग थे | जैसे जी बारह बजे के लगभग सुखदेव भाई के घर पहुँचे तो वहाँ तीस-पैंतीस महिला-पुरुष मिलकर दाल-पानिया (मक्का की बाटी-उड़द की दाल) बना रहे थे |
मैंने सुखदेव भैया से कहा "क्यों भाई पूरा गाँव इकठ्ठा हो गया" |
सुखदेव ने कहा "नहीं भाईसाहब, ये सब मेरे एक ही परिवार के लोग है" |
हम सब को सुखद आश्चर्य हुआ कि गाँवों में आज भी सयुंक्त परिवार इतनी बड़ी संख्या में रहता है | ये सब सुखदेव भाई के पिताजी श्रद्देय गारदिया जी के स्नेह व समन्वय का ही प्रताप है | चर्चा करने पर उन्होंने बताया कि वे चार भाई में से अकेले बचे हैं | सभी भाईयों के बाल बच्चों की जवाबदारी उन्होंने ही निभाई है | उनका कुटुम्भ तो गाँव में चार सौ से अधिक संख्या का है | पर एक ही छत के नीचे चालीस से अधिक उनके तथा भाईयों के बच्चे, नाती-पोते रहते हैं |
घर पर अच्छी खेती है, सभी उन्नत खेती करते हैं | गाय-भैंस है, भोजन गोबर गैस पर बनता है | परिवार के कुछ सदस्य बाहर भी नौकरी करते हैं, लैकिन वार-त्यौहार पर सब इकठ्ठे हो जाते हैं |
भारत के सरल सहज जनजाति समाज ने न केवल प्राकृतिक सम्पदा को बचाकर रखा अपितु भारत की सांस्कृतिक विरासत और जीवन मूल्यों को भी संजोकर रखा है | दाल-पानिए का पेट भर रसास्वादन कर व पूरे परिवार को यथायोग्य प्रणाम कर हम अगले पड़ाव की ओर चल दिए |

#गुजरात_प्रवास (भाग-२)
गुजरात के भरूच जिले की मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र से लगी सीमा जनजाति बहुल है | ईसाई मिशनरियाँ देश के हर प्रान्त के सीमावर्ती क्षेत्रों में ही सेवा की आड़ में मतान्तरण का जाल बुनती है | भरूच की नेत्रंग तहसील के गाँव-गाँव में मिशनरियों की गतिविधियाँ चलती हैं | अनेक गाँवों में मतान्तरण भी हुआ है | 
गुजरात विद्या भारती द्वारा जब जनजाति क्षेत्र में कार्य विस्तार की बात आई तो सबका ध्यान इस क्षेत्र की ओर आया | तब २००६-०७ में "माधव विद्या पीठ" नामक एक शैक्षिक संस्थान की स्थापना नेत्रंग के पास काकड़कुई गाँव में हुई | गुजरात के जनजाति शिक्षा के अब प्रान्त प्रमुख श्री विजय भाई सुरतिया (Vijaysinh Suratia) ने तब चार वर्ष का अपना पूरा समय देकर उस बंजर जमीन को हरी-भरी करने तथा संस्थान को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए कार्यकर्ताओं के साथ दिन-रात एक कर दिया |
तब जहाँ पीने का पानी डेढ़ किलोमीटर दूर से लाना पड़ता था | आज वहाँ आम, नीम, गुलमोहर, चन्दन सहित बीसीयों प्रजाति के वृक्ष फलफूल रहे हैं | ३०० से अधिक वसावा जनजाति के भैया-बहिन आवासीय विद्यालय में रहकर यहाँ नि:शुल्क अध्ययन कर रहे हैं | बच्चों का अनुशासन, सरलता, परिश्रम देखने लायक है | तीस से अधिक गिर गायों की सुन्दर गोशाला है | आसपास के गाँवों में शिक्षा के अनेक केन्द्र प्रारम्भ हुए हैं | अच्छे परीक्षा परिणाम और सुसंस्कारों के कारण अब लोग मिशनरियों के स्कूलों से बच्चों को निकालकर माधव विद्यापीठ में भर्ती कराने लगे हैं |
विद्या भारती की ग्रामीण और जनजाति शिक्षा में शिशु शिक्षा के पाठ्यक्रम पर यहीं शिशु वाटिका की अखिल भारतीय प्रमुख आशा बेन थानकी के मार्गदर्शन में सर्वश्री निरंजन जी, भुवंता जी, बुधपाल जी, गोपाल जी, रूपसिंह जी के साथ तीन दिन चिन्तन हुआ | इस हेतु आसपास के गाँवों में जाकर स्थानीय समाज से वार्तालाप भी हुआ | गुजराती, मालवी और निमाड़ी तीनों भाषाएँ सगी बहिनों की तरह होने से सबसे बातें करने में बहुत आसानी हुई | जहाँ जाओ वहाँ अपनी आदत अनुसार मैंने गौ आधारित कृषि के कुछ गुर भी बच्चों, आचार्यों व अभिभावकों को सिखाये |

#गुजरात_प्रवास (भाग-३)
नेत्रंग (भरूच) के आसपास के कुछ गाँवों में घूमने पर कहीं-कहीं पृथक "भीलीस्तान" बनाने के स्वर सुनाई दिए | कम ही लोग जानते हैं कि गुजरात के साबरकांठा, बनासकांठा, पंचमहल, दाहोद, नर्मदा, भरूच, तापी, डांग, सूरत, नवसारी, वलसाड और इससे जुड़े हुए राजस्थान के बाड़मेर, जालौर, सिरोही, उदयपुर, बांसवाड़ा और मध्यप्रदेश के रतलाम, झाबुआ, अलीराजपुर, बडवानी, धार, महाराष्ट्र के नंदुरबार, धुले, नासिक आदि जिलों को मिलाकर एक नया राज्य की चर्चा अनेक वर्षों से है|
जागरूक ग्रामीणों से चर्चा करने पर ध्यान में आया कि इस क्षेत्र में आन्दोलन को अंदर से खाद-पानी देने का काम मिशनरियाँ और अपने बिहार वाले इशरत के अब्बू का दल भी वहाँ लोगों को यूनाइटेड कर रहा है | एक समय जनता दल गुजरात में प्रभावशाली राजनीतिक दल था, अब उसके कुछ अवशेष भरूच जिले में ही बचे हैं | लोगों ने बताया कि यहाँ भी चर्च और#लाल_गुलाम एक ही थेली के चट्टे-बट्टे हैं |

एक गाँव के किनारे पहाड़ी पर बनी कब्र पर क्रास लगा देखकर मैंने स्थानीय ग्रामीणों से पूछा तो उन्होंने बताया कि जनजाति समाज के किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उस क्षेत्र का पादरी मुर्दाखोर की तरह सूँघते हुए उस गाँव में पहुँच जाता है और मृतक के परिवार पर दबाव बनाकर कि मृतक कभी चर्च में आता था, यह हवाला देकर उसे दफनाने पर विवश करता है तथा उसकी कब्र पर क्रास लगवाता है | जबकि यहाँ के जनजाति समाज में अब अन्तिम क्रिया दाह संस्कार के द्वारा होने लगी है |
कुल मिलाकर समाज विघातक शक्तियाँ हमारे समाज को तोड़ने का षड्यंत्र देश के हर कोने-कुचारे में वर्षों से अबाध गति से चला रही थी | संघ और उससे प्रेरित संगठन उसे रोकने में अथवा अनेक स्थानों पर उनकी असलियत समाज को बताने में समर्थ हुए हैं | "वे" इसीलिये तो#संघ_मुक्त भारत चाहते हैं |
#गुजरात_प्रवास (भाग-४)
वापसी में सबकी इच्छा "स्टैच्यू आफ यूनिटी" स्थल देखने की हुई | यह स्थान भरूच के पास नर्मदा जिले में सरदार सरोवर बाँध से सवा तीन किलोमीटर की दूरी पर साधु बेट नामक स्थान पर नर्मदा जी के बीचोंबीच एक टापू पर है | यहीं पर लोहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का दुनियाँ में सबसे ऊँचा (१८२ मीटर) स्मारक बनने वाला है | इस विशालकाय भव्य मूर्ति का शिलान्यास २०१३ में नरेन्द्र भाई जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब कर चुके हैं | 
एक तरफ विन्ध्याचल तथा दूसरी ओर सतपुड़ा पर्वत है | माँ नर्मदा के एकदम मध्य में यह स्मारक बन रहा है | जब हम वहाँ पहुँचे तो स्मारक स्थल तक अभी जाने की अनुमति नहीं होने से किनारे से ही निर्माणाधीन स्मारक को देखा | आधार का काम लगभग पूर्णता की ओर है | वहाँ के एक अधिकारी से चर्चा करने पर उन्होंने बताया कि इस स्मारक के आगे एक बाँध ओर प्रस्तावित है, जहाँ पण बिजली से निकलने वाले जल को संग्रहित कर उसे पुनः सरदार सरोवर में लिफ्ट किया जायेगा | तब यह स्मारक पूर्ण रूप से जल के मध्य में होगा |
सरदार सरोवर के सामने लगी लोहपुरुष की प्राचीन प्रतिमा को प्रणाम कर विशालकाय पण बिजली घर को देखकर वहाँ से निकली नदियों के समान नहरों के किनारे-किनारे आगे बढ़ते हुए हम मध्यप्रदेश के अलीराजपुर नगर होते हुए निरंजन जी के गाँव झापड़ी में उनके खेत में खटिया पर यात्रा की थकान दूर कर घर में गरमागरम पराठे खाकर अपने-अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर गए |
|| इति ||
#माँ 
- माँ सुबह चार बजे से उठकर घट्टी (चक्की) में ज्वार पीसते हुए गीत गाती थी, वो आवाज सौ लता मंगेशकर से भी मीठी होती थी |
- माँ सुबह साढ़े चार बजे राई घुमाकर दहीं से मक्खन अलग कर जो छाछ बनाती थी, दुनियाँ का कोई पेय आज भी उसके मुकाबले का नहीं है |
- माँ सुबह पाँच बजे गाँव की कुण्डी (छोटा कुआ) से रस्सी से खींचकर मटके में पानी भरकर लाती थी, वो स्वाद दुनियाँ का कोई आरो वाटर नहीं दे सकता |
- मेरी बिना पढ़ी-लिखी माँ रोज सुबह खटिया के पास चिमनी जलाकर तथा स्कूल का झोला सिरहाने रखकर कहती "उठ , भण बेटा" | दुनियाँ का कोई शिक्षक यह नहीं कर सका |
- स्कूल का समय होते ही माँ काला टीका लगाकर झोला कंधे में टांगकर भेज देती, हम हमेशा मास्टर जी से पहले स्कूल पहुँच जाते | तब कोई घड़ी नाम की चीज घर पर नहीं थी |
- संवेदना की पराकाष्ठा तो तब हो जाती, जब भूख लगने को होती ही थी कि माँ आवाज लगा देती "जीम ले बेटा", |
- जब भी आइसक्रीम वाला गाँव में आता था , मैं दुनियाँ के सबसे अमीर घर का बच्चा होता था, क्योंकि माँ के पल्लू में पंजी-दस्सी रहती ही थी |
- मैं जब खेत पर जाता तो माँ खेत पर मिलती, जब घर पर आता था तो माँ घर पर मिलती | मैं खेलते हुए गाँव की किसी भी गली में गिर जाता, माँ तुरन्त आकर उठा लेती थी, ब्रहमाण्ड के किसी धर्म का भगवान इतना अंतरयामी नहीं हो सकता |
- अभी भी जब कभी घर पर माँ से मिलकर जिस स्थान के लिए निकलता हूँ, पहुँचने के दस-पाँच मिनिट आगे पीछे छोटे का फोन आ जाता है कि माँ पूछ रही "पहुँच गए क्या" ...|
#प्रकृति 
बादल 
अक्सर रास्ता भटक जाते हैं,
क्योंकि वे 
सड़क-सड़क नहीं 
पेड़-पेड़ चलकर आते हैं |
#ओटला (काव्य संग्रह)
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बचपन में गाँव के घर के बाहर का “ओटला” (घर की बाहरी दीवार से सटा चबूतरा) ही अपना संसार था | उसी “ओटले” पर खेले कूदे बड़े हुए | हर सप्ताह घर के ओसारी-आँगन की लिपाई के साथ ओटला भी गोबर से लीपकर माँ उस पर पाण्डू (सफ़ेद रंग की मिट्टी) से एक बड़ा “मांडना” बनाती थी | जाड़े में सूरज सबसे पहले ओटले पर ही आता था और चौमासा शुरू होने के पहले दादाजी उसी ओटले पर बबूल और पलास की लकड़ी और पूस से बने टट्टे डाल देते थे, एक बूँद पानी नहीं आता था | दादाजी, पिताजी और काका लोग तथा आसपड़ोस के बड़े-बूढ़े सावन-भादौ की झड़ियों में ओटले पर ही इकठ्ठे होकर पलास की जड़ और सन से गाय-बैल तथा अन्य पशुओं के लिए रस्सियाँ और उनके मोरे, जोत, रास, सुंडे तथा कुए-बावड़ी से पानी खींचने वाली पतली-मोटी रस्सियाँ बनाते थे |
यह सब करते हुए मौसम की कहावतें, अच्छी बैल जोड़ियां, गाँव के नदी-तालाब के किस्से तथा पूरे परगने के नात-भांत पर चर्चाएँ होती रहती थी | हम बच्चे भी मटके से निकालकर अम्मा द्वारा दिए हुए होले (सिके हुए चने) चबाते हुए कुतुहल से उनकी बातें सुनते रहते | कभी बाल भारती पढ़ते तो कभी रस्सी बनाना सीखते |
समय का पहिया बड़ी तेजी से घूमा | गाँव, क़स्बा, नगर, महानगर घूमते हुए चार-पाँच दशक बीत गए, लैकिन मन में ग्राम्य जीवन ही बसा रहा | जहाँ भी रहा गाँवों से जीवन्त सम्पर्क बना रहा |
लैकिन बचपन वाला गाँव कहीं खो गया | घर के सामने बना ओटला अब कमरे में बदल गया | पहले गाँव में नमक, जर्दा-सुपारी तथा कुछ कपड़े ही शहर से आते थे | बाकी जरूरतों की सारी चीजें छोटे से गाँव में ही बनती थी | मतलब हर गाँव एक बिग बाजार या मॉल था | अब तो गाँव में हर चीज के लिए शहर दौड़ना पड़ता है | समझ नहीं आता हम तब पिछड़े थे या अब..| मेरे बचपन के सामने कभी अपने गाँव में पानी की समस्या नहीं आई क्योंकि गाँव के बड़े तालाब में सालभर पानी रहता था और उसी की बाजू से निकली छोटी नदी की रेत में झिरी खोदकर हम जेठ में भी पानी पी लेते थे | लैकिन अब तालाब भी सिकुड़ गया, नदी तो चैत में ही मर जाती है | उस जमाने के सार्वजनिक जामुन, आम, खजूर सब खतम हो गए | नए किसी ने लगाए नहीं, अगर है तो वे हाइब्रिड बाग-बगीचे किसी के निजी है | अब नई पीढ़ी में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ी है | शासन और समाज मिलजुलकर इस ओर एक कदम आगे बढ़ाया है | लैकिन आज बहुत बड़े आन्दोलन की आवश्यकता है | पर्यावरण के राक्षसों से पंचतत्वों की रक्षा एक बड़ी चुनोती है |
उसी से उपजी कुछ पीड़ायें इस “ओटला” काव्य संग्रह में है | मालवा, राजस्थान को छोड़कर "ओटला" हिन्दी के अन्य पाठकों के लिए नया शब्द होगा | “चातुर्मास” के बाद यह मेरा दूसरा काव्य संग्रह है | हरि इच्छा, कब तक यह संग्रह पुस्तक के आकार में जन्म लेता है | इसी में हर दिन एकाध घंटा पिछले एक माह व्यस्त था | इसीलिये फेसबुक के मित्रों से लम्बे समय बाद प्रत्यक्ष भेंट हो रही है | सभी को राम-राम |
|| बैतूल का पर्यावरण ||
#सोनाघाटी की पहाडियाँ पर्यावरण संतुलन के लिए #बैतूल नगर के लिए वरदान है | कभी इन्हीं पहाडियों पर आच्छादित घने वन के कारण अंग्रेजों ने यहाँ अपनी बस्ती बसाई थी | इन्हीं पहाडियों पर बैठकर महाकवि दादा #भवानीप्रसाद_मिश्र ने १९३९ में अपनी कालजयी रचना "#सतपुड़ा_के_घने_जंगल-ऊँघते अनमने जंगल" लिखी थी | बैतूल के पूर्व से पश्चिम की तरफ घेरे रखने वाली ये पहाडियाँ अब लगभग वृक्षविहीन है | लेंटाना सहित कुछ अन्य काँटेदार जंगली झाडियाँ भर बची है | हर साल पुराने वृक्षों के ठूँठों से सिसकती बड़ी होती डालियों को लोग नोच ले जाते हैं | पहाडियों के कई हिस्से अवैध उत्खनन के कारण क्षत-विक्षत है | लगातार खुदाई तथा बचे हुए छोटे-बड़े पेड़ों की अवैध कटाई देखकर ऐसा लगता है मानो पूरा बैतूल इन पहाडियों को जितनी जल्दी हो खा जाना चाहता है |
वर्ष २०१६ बैतूल इतना गरम कभी नहीं हुआ | मैं भारत भारती में पिछले बीस साल से रह रहा हूँ | हर मौसम में #भारत_भारती में बैतूल से दो-तीन डिग्री तापमान कम रहता है | लैकिन पिछले दो वर्ष से भारत भारती क्षेत्र का पर्यावरण भी खराब हो गया | इसका सबसे बड़ा कारण फोरलेन के लिए खोदी गई सोनाघाटी की पहाड़ी है | जो पूर्व , उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम की ओर घने जंगलों से से आने वाली ठंडी हवाओं को वर्ष भर रोकती थी | इसे के कारण यहाँ गर्मी कम पड़ती थी तथा वर्षा भी सम होती थी | विशालकाय पहाड़ी खुद जाने से वह एक चिमनी या एक्जास पंखे का काम करने लग गई है |
भारत भारती के क्षेत्र में पिछले दो वर्षों से हो रही भयंकर ओलावृष्टि का मुख्य कारण भी मुझे यह पहाड़ी में बन गया विशालकाय बोगदा ही लगता है | खैर विकास का क्रम भी आवश्यक है किन्तु अब क्या किया जाए ?
बैतूल जिला शासन-प्रशासन ने इस वर्ष एक बड़ी पहल की है #ताप्ती_वन_महोत्सव के नाम से सोनाघाटी की एक पहाड़ी को नगर भर के लोगों ने हरी-भरी करने का संकल्प लिया है | कल बड़ी संख्या में यहाँ नीम के पौधे रोपे गए हैं | जल संवर्धन की दृष्टि से खन्तियाँ भी खोदी है |Collector Betul मा. पाटिल जी व्यक्तिगत रूचि लेकर यह कार्य कर रहे हैं |
बैतूल के सभी पर्यावरण प्रेमियों से आग्रह है कि इस वर्षा ऋतु में एक बार सोनाघाटी (पोलिटेक्निक कालेज के पीछे) जाकर एक पौधा लगाकर आयें तथा समय-समय पर उसकी देखरेख करें | पोलिटेक्निक महाविद्यालय के प्राचार्य व पर्यावरण के लिए समर्पित व्यक्तित्व श्रीArun Singh Bhadoriya जी पिछले डेढ़ दशक से उस क्षेत्र को हरा-भरा करने में लगे हैं | हम सब उनके सहयोगी बनें तथा अपने बैतूल का मौसम फिर पच्चीस साल पूर्व जैसा बनाएँ जिसमें अप्रेल-मई में भी पंखो की जरुरत नहीं पड़ती थी |
#गाय_बचा_लो 
आज के परिवेश में घर में गोपालन कठिन है | गाँवों में भी अब धीरे-धीरे नगरों के समान घर बनने लगे हैं | पहले घर के बाहर चबूतरा, घर के अंदर प्रवेश करते ही सबसे पहले गाय का कोठा उसके बाद आँगन और फिर अन्य आवश्यक कमरे, रसोई आदि होते थे | बदलते युग में अब वह सब छूटता जा रहा है | आधुनिक रहन-सहन तथा कई विवशताओं के कारण अब यह सब सम्भव भी नहीं हैं |
किन्तु खेती और परिवार के स्वास्थ्य के लिए गोपालन तो आवश्यक है | इसलिए समझदार किसान अपने खेत-कुए पर ही झोपड़े बनाकर वहीं गोपालन करते हैं | खेत का रखवाला या घर का कोई सदस्य उनकी देखरेख करता है | लैकिन यह संख्या नगण्य है |
हिन्दू धर्म में अत्यन्त उपयोगी पेड़, वनस्पति, जीव-जन्तु को पूज्य स्थान पर रखा गया है | गाय उनमे से एक है | गाय केवल मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए ही नहीं तो पञ्च महाभूत (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा) की रक्षा के लिए आवश्यक है | अनेक वैज्ञानिक कसौटियों पर यह कसा जा चुका है, इसे बार-बार सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं हैं | पृथ्वी पर गाय खत्म होने से अनेक संकट खड़े हो जायेंगे | यह धीरे-धीरे होने भी लगा है |
जैसे माँ के मर जाने से छोटे बच्चों की क्या स्थिति हो जाती है | वही स्थिति सम्पूर्ण जीव-जन्तुओं की हो जायेगी | इसलिए गाय को "विश्वस्य मातरः" कहा गया है |
भारत में विज्ञान को धर्म के माध्यम से ही बताया गया है | इसलिए गाय को धार्मिक मान्यता देकर उसमे सभी देवों का वास बताकर माता का दर्जा दिया गया | सदियों तक भारतीय समाज ने इसका पालन भी किया | अभी भी कोई सब कुछ खत्म नहीं हुआ है |
किन्तु जिस मात्रा में आवश्यक है उतना आज के परिवेश में गो का पालन, संवर्धन और संरक्षण एक चुनौती है | लगातार होते औद्योगीकरण, खत्म होते चरागाह, रासायनिक तथा मशीनीकृत खेती के कारण गाय के लिए सड़कों के अलावा कहीं जगह बची नहीं हैं | लैकिन मूल भारतीय समाज के मन में अभी भी गाय के लिए श्रद्धाभाव है | लैकिन वो विवश है | इसलिए पूरे देश की तरह गायें भी सरकारी तंत्र के भरोसे होकर दुर्दशा को प्राप्त हो गई |
गाय बचेगी तो सिर्फ किसान के खूंटे पर..| यह बात जब तक किसान को फिर से समझ न आ जाए तब तक गाय को गोशालाओं आदि में ही बचाना पढ़ेगा | सुधी जन गोशालाओं को समृद्ध करने की और ध्यान दें तथा समय-समय उसका निरीक्षण भी करें | बहुत जल्दी ही पुनः गोसेवा युग प्रारम्भ होगा | व्यर्थ के वाद-विवाद में न उलझते हुए बस इस थोड़े से संकट काल में गोमाता को बचा लें | यही प्रार्थना ..|
#गावो_रक्षति_रक्षितः 
बरसात का पानी धरती के अंदर जाता कैसे है ?
बाँध, तालाब आदि मानवनिर्मित तंत्र के अलावा एक तो ग्रीष्म काल में सूर्यताप से धरती के अंदर मिट्टी में नमी कम हो जाने से दरारें पड़ जाती है, जिससे वर्षा जल गिरते ही इन दरारों से धरती के अंदर समाने लगता है | तथा दूसरा महत्वपूर्ण कारण है धरती के अंदर पग-पग पर छोटे-बड़े छिद्र होते हैं जिन्हें पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीव-जन्तु बनाते हैं | ये जीव अपना घर बनाने के लिए धरती के अंदर हजारों छेद करते हैं तथा वर्षाऋतु आने पर अपने घरों से अपने अंडे-बच्चे लेकर पेड़ों पर या ऊँचे स्थान पर चले जाते हैं |
इन अरबों-खरबों जीव-जन्तुओं को प्रतिदिन भोजन के लिए धरती के ऊपर ही आना पड़ता है , तथा हरबार नया छिद्र बनाकर निकलना पड़ता है | जिससे जमीन पोली हो जाती है तथा वर्षा जल वहीं से धरती के अंदर जाकर जमा हो जाता है, जिसको हम विभिन्न माध्यमों से खींचकर सालभर उपयोग करते हैं |
पिछले बीस वर्ष में मैंने अपने अनुभव से जाना है कि जमीन के अंदर रहने वाले इन छोटे-छोटे असंख्य जीवों के लिए गाय का गोबर सबसे सबसे अच्छा खाद्य है | गाय का गोबर जहाँ गिरता है, वहाँ जमीन से अनेक प्रकार के जीव निकलकर उसे एक-दो दिन में ही चट कर जाते हैं | गाय के गोबर में केंचुओं की संख्या बढ़ाने की अद्भुत क्षमता है और केंचुआ धरती को उपजाऊ बनाने सबसे बड़ा माध्यम है | केंचुआ मिट्टी के अंदर पड़े अपशिष्ट खाता है तथा मलत्याग धरती के ऊपर आकर करता है | जिससे धरती पोली और भुरभुरी बनती है, ऐसी मिट्टी में फसलों की जड़ें गहरी जाती है | तथा धरती में जलधारण करने की क्षमता भी बढ़ती है |
इसलिए कहा गया है जहाँ गाय कम हो जायेगी वहाँ जमीन की उर्वरकता कम होती जायेगी तथा धरती के अंदर का भी जल सूखता जायेगा | जैवविविधता की रक्षा करने में गाय सक्षम हैं , हमें केवल गाय की रक्षा करनी है |

कृषि नीति

#कृषि_नीति 
अंग्रेजों के आने के पूर्व भूमि का बंदोबस्त गाँव के लोग ही करते थे | भूमि किसी की नहीं अपितु गाँव की होती थी | एक से दूसरे गाँव के बीच काकड़ अथवा मेढा हुआ करता था | गाँव के लोग मिल बैठकर कृषि, चरागाह तथा वन क्षेत्र की भूमि का स्थान तय करते थे | प्रति दस वर्ष में चरागाह और कृषि भूमि की अदला-बदली होती थी | पड़त भूमि पर गोबर और गोमूत्र गिरने से वह फिर से उपजाऊ जाती थी | अंग्रेज लोग चाहे भूमि का बँटवारा कर गए किन्तु पड़त और कृषि भूमि का यह परिवर्तन आजादी के बाद भी होता रहा |
लैकिन पिछले तीस-चालीस वर्षों में यह बदलाव न के बराबर हुआ है | चरागाह लगभग समाप्त हो गए और कृषि योग्य भूमि पर लगातार खेती वो भी एक ही प्रकार की हो रही है | ऊपर से रसायन और कीटनाशकों ने भूमि का जो सत्यानाश किया है वो अलग ..| 
अगर हमें अपनी धरती पुनः सुजलाम् सुफलाम् बनाना है तो किसी भी रूप में उसमे गोबर और गोमूत्र का प्रयोग करना ही होगा |

भुजरिया विज्ञान

#भुजरिया_का_विज्ञान 
आजकल तो अन्न के बीज को सुरक्षित रखने तथा उसके परीक्षण के अनेक तरीके विकसित हो गए हैं | किन्तु प्राचीन काल से भारत में अगले एक वर्ष तक बीज को सुरक्षित रखने के भी तरीके थे | पहले घरों में भिन्न-भिन्न प्रकार की मिट्टी की कोठियाँ बनती थी, जिसमे नीम आदि की पत्तियाँ मिलाकर उसे वायुरोधक बनाकर अलग-अलग कोठियों में बीज रखा जाता था | 
इसके साथ ही उस सुरक्षित बीज का समय-समय पर परीक्षण भी किया जाता था |
#पहला 
- चैत्र मास में जब बीज रखा जाता था तो अच्छा बीज किस खेत का है, उसी खेत की मिट्टी लाकर उसे घर में #चैत्र_नवरात्रि में देवस्थान पर लाकर उगाया जाता था | जिसे हम जुआरे कहते हैं | जिस खेत का अन्न अच्छा उगता था, उसमें से बीज के लिए तिगुना रख लिया जाता था | शेष अन्न वर्षभर खाने के लिए रख लिया जाता था, ज्यादा होने पर बेच दिया जाता था |
#दूसरा
- बीज का दूसरा परीक्षण सावन मास में किया जाता था, कोठियों से अन्न निकालकर कि कहीं बीज में घुन तो नहीं लगा, उसे सावन शुक्ल नवमी को खेत से महुए के पत्तों और बाँस की टोकरी में मिट्टी लाकर पुनः बोया जाता था | इसे भुजलिया/कजलिया के नाम से जाना जाता है | भाद्र कृष्ण प्रतिपदा (आज के दिन) को इन भुजलियों की शोभायात्रा धूमधाम से निकाली जाती थी | हर किसान एक-दूसरे का बीज कैसा उगा यह देख भी ले इसलिए नदी-सरोवर आदि में जुआरे धोकर उसे एक-दूसरे को भेंट दिया जाता था | लोग इसी समय बीज की अदला-बदली भी कर लेते थे |
#तीसरा
- तीसरा परीक्षण बुआई के ठीक पहले #शारदीय_नवरात्रि में देवी जी के यहाँ सार्वजनिक रूप से जुआरा लगाने की परम्परा सदियों से है | पुनः जिस खेत में बुआई करना है उसकी मिट्टी लाकर मिट्टी के पात्र में अन्न उगाया जाता है | जिस कोठी का सबसे अच्छा उगता उसे बीज के लिए तथा बाकी को अगले चार माह भोजन के रूप में उपयोग हो जाता था |
- आज सिद्ध हुआ है कि जुआरे केंसर रोधी है | हमारे यहाँ तो सदियों से जुआरे का रस पीने की परम्परा है | नदियों-सरोवरों में जुआरे धोने के बाद उसमें से आधे जुआरे गाँव के मन्दिर में चढ़ा दिया जाता था, मन्दिर का पुजारी उसे बाँटकर रस निकालकर शाम को संध्या आरती में भगवान के चरणामृत के रूप में सबको बाँटता था |
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बीज बचाने की इस अद्भुत प्रयोगशाला को हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसे त्यौहार का रूप दे दिया | जिसे हम आज भी धूमधाम से मनाते आ रहे हैं | भुजलिया के इस पर्व को कुछ विद्वान भू-जल के संरक्षण से भी जोड़कर देखते हैं |
सभी मित्रों-शुभचिन्तकों को हरियाली विस्तार के शुभ पर्व #भुजलिया की हार्दिक बधाईयाँ-शुभकामनाएँ |
#साहित्य_अकादमी_पुरूस्कार 
मेरे साहित्यिक जीवन का आज सबसे बड़ा दिन है | मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भोपाल के निदेशक डॉ. Umesh Singh जी द्वारा आज दिनांक १९/०८/२०१६ को घोषित २०१४ के साहित्य अकादमी पुरुस्कारों में मेरी प्रथम कृति "#चातुर्मास" को #दुष्यन्त_कुमार_पुरूस्कारसे अलंकृत किया गया है | श्रेष्ठ साहित्यकारों का आशीर्वाद और आप मित्रों की शुभकामनाओं का ही यह प्रतिफल है | 
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किसी नवोदित रचनाकार के लिए साहित्य अकादमी का पुरूस्कार अमृत फल के समान है, जिसे पाकर वह न केवल धन्यता को प्राप्त होता है अपितु अपनी शक्ति और उत्साह को द्विगुणित कर अपने लक्ष्य प्राप्ति की ओर तेजी से कदम बढ़ाता है |
आभार साहित्य अकादमी भोपाल / धन्यवाद पुनः सभी मित्रों का |

साहित्य अकादमी पुरूस्कार

#साहित्य_अकादमी_पुरूस्कार 
मेरे साहित्यिक जीवन का आज सबसे बड़ा दिन है | मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भोपाल के निदेशक डॉ. Umesh Singh जी द्वारा आज दिनांक १९/०८/२०१६ को घोषित २०१४ के साहित्य अकादमी पुरुस्कारों में मेरी प्रथम कृति "#चातुर्मास" को #दुष्यन्त_कुमार_पुरूस्कारसे अलंकृत किया गया है | श्रेष्ठ साहित्यकारों का आशीर्वाद और आप मित्रों की शुभकामनाओं का ही यह प्रतिफल है | 
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किसी नवोदित रचनाकार के लिए साहित्य अकादमी का पुरूस्कार अमृत फल के समान है, जिसे पाकर वह न केवल धन्यता को प्राप्त होता है अपितु अपनी शक्ति और उत्साह को द्विगुणित कर अपने लक्ष्य प्राप्ति की ओर तेजी से कदम बढ़ाता है |
आभार साहित्य अकादमी भोपाल / धन्यवाद पुनः सभी मित्रों का |