#ओटला (काव्य संग्रह)
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बचपन में गाँव के घर के बाहर का “ओटला” (घर की बाहरी दीवार से सटा चबूतरा) ही अपना संसार था | उसी “ओटले” पर खेले कूदे बड़े हुए | हर सप्ताह घर के ओसारी-आँगन की लिपाई के साथ ओटला भी गोबर से लीपकर माँ उस पर पाण्डू (सफ़ेद रंग की मिट्टी) से एक बड़ा “मांडना” बनाती थी | जाड़े में सूरज सबसे पहले ओटले पर ही आता था और चौमासा शुरू होने के पहले दादाजी उसी ओटले पर बबूल और पलास की लकड़ी और पूस से बने टट्टे डाल देते थे, एक बूँद पानी नहीं आता था | दादाजी, पिताजी और काका लोग तथा आसपड़ोस के बड़े-बूढ़े सावन-भादौ की झड़ियों में ओटले पर ही इकठ्ठे होकर पलास की जड़ और सन से गाय-बैल तथा अन्य पशुओं के लिए रस्सियाँ और उनके मोरे, जोत, रास, सुंडे तथा कुए-बावड़ी से पानी खींचने वाली पतली-मोटी रस्सियाँ बनाते थे |
यह सब करते हुए मौसम की कहावतें, अच्छी बैल जोड़ियां, गाँव के नदी-तालाब के किस्से तथा पूरे परगने के नात-भांत पर चर्चाएँ होती रहती थी | हम बच्चे भी मटके से निकालकर अम्मा द्वारा दिए हुए होले (सिके हुए चने) चबाते हुए कुतुहल से उनकी बातें सुनते रहते | कभी बाल भारती पढ़ते तो कभी रस्सी बनाना सीखते |
समय का पहिया बड़ी तेजी से घूमा | गाँव, क़स्बा, नगर, महानगर घूमते हुए चार-पाँच दशक बीत गए, लैकिन मन में ग्राम्य जीवन ही बसा रहा | जहाँ भी रहा गाँवों से जीवन्त सम्पर्क बना रहा |
लैकिन बचपन वाला गाँव कहीं खो गया | घर के सामने बना ओटला अब कमरे में बदल गया | पहले गाँव में नमक, जर्दा-सुपारी तथा कुछ कपड़े ही शहर से आते थे | बाकी जरूरतों की सारी चीजें छोटे से गाँव में ही बनती थी | मतलब हर गाँव एक बिग बाजार या मॉल था | अब तो गाँव में हर चीज के लिए शहर दौड़ना पड़ता है | समझ नहीं आता हम तब पिछड़े थे या अब..| मेरे बचपन के सामने कभी अपने गाँव में पानी की समस्या नहीं आई क्योंकि गाँव के बड़े तालाब में सालभर पानी रहता था और उसी की बाजू से निकली छोटी नदी की रेत में झिरी खोदकर हम जेठ में भी पानी पी लेते थे | लैकिन अब तालाब भी सिकुड़ गया, नदी तो चैत में ही मर जाती है | उस जमाने के सार्वजनिक जामुन, आम, खजूर सब खतम हो गए | नए किसी ने लगाए नहीं, अगर है तो वे हाइब्रिड बाग-बगीचे किसी के निजी है | अब नई पीढ़ी में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ी है | शासन और समाज मिलजुलकर इस ओर एक कदम आगे बढ़ाया है | लैकिन आज बहुत बड़े आन्दोलन की आवश्यकता है | पर्यावरण के राक्षसों से पंचतत्वों की रक्षा एक बड़ी चुनोती है |
उसी से उपजी कुछ पीड़ायें इस “ओटला” काव्य संग्रह में है | मालवा, राजस्थान को छोड़कर "ओटला" हिन्दी के अन्य पाठकों के लिए नया शब्द होगा | “चातुर्मास” के बाद यह मेरा दूसरा काव्य संग्रह है | हरि इच्छा, कब तक यह संग्रह पुस्तक के आकार में जन्म लेता है | इसी में हर दिन एकाध घंटा पिछले एक माह व्यस्त था | इसीलिये फेसबुक के मित्रों से लम्बे समय बाद प्रत्यक्ष भेंट हो रही है | सभी को राम-राम |
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बचपन में गाँव के घर के बाहर का “ओटला” (घर की बाहरी दीवार से सटा चबूतरा) ही अपना संसार था | उसी “ओटले” पर खेले कूदे बड़े हुए | हर सप्ताह घर के ओसारी-आँगन की लिपाई के साथ ओटला भी गोबर से लीपकर माँ उस पर पाण्डू (सफ़ेद रंग की मिट्टी) से एक बड़ा “मांडना” बनाती थी | जाड़े में सूरज सबसे पहले ओटले पर ही आता था और चौमासा शुरू होने के पहले दादाजी उसी ओटले पर बबूल और पलास की लकड़ी और पूस से बने टट्टे डाल देते थे, एक बूँद पानी नहीं आता था | दादाजी, पिताजी और काका लोग तथा आसपड़ोस के बड़े-बूढ़े सावन-भादौ की झड़ियों में ओटले पर ही इकठ्ठे होकर पलास की जड़ और सन से गाय-बैल तथा अन्य पशुओं के लिए रस्सियाँ और उनके मोरे, जोत, रास, सुंडे तथा कुए-बावड़ी से पानी खींचने वाली पतली-मोटी रस्सियाँ बनाते थे |
यह सब करते हुए मौसम की कहावतें, अच्छी बैल जोड़ियां, गाँव के नदी-तालाब के किस्से तथा पूरे परगने के नात-भांत पर चर्चाएँ होती रहती थी | हम बच्चे भी मटके से निकालकर अम्मा द्वारा दिए हुए होले (सिके हुए चने) चबाते हुए कुतुहल से उनकी बातें सुनते रहते | कभी बाल भारती पढ़ते तो कभी रस्सी बनाना सीखते |
समय का पहिया बड़ी तेजी से घूमा | गाँव, क़स्बा, नगर, महानगर घूमते हुए चार-पाँच दशक बीत गए, लैकिन मन में ग्राम्य जीवन ही बसा रहा | जहाँ भी रहा गाँवों से जीवन्त सम्पर्क बना रहा |
लैकिन बचपन वाला गाँव कहीं खो गया | घर के सामने बना ओटला अब कमरे में बदल गया | पहले गाँव में नमक, जर्दा-सुपारी तथा कुछ कपड़े ही शहर से आते थे | बाकी जरूरतों की सारी चीजें छोटे से गाँव में ही बनती थी | मतलब हर गाँव एक बिग बाजार या मॉल था | अब तो गाँव में हर चीज के लिए शहर दौड़ना पड़ता है | समझ नहीं आता हम तब पिछड़े थे या अब..| मेरे बचपन के सामने कभी अपने गाँव में पानी की समस्या नहीं आई क्योंकि गाँव के बड़े तालाब में सालभर पानी रहता था और उसी की बाजू से निकली छोटी नदी की रेत में झिरी खोदकर हम जेठ में भी पानी पी लेते थे | लैकिन अब तालाब भी सिकुड़ गया, नदी तो चैत में ही मर जाती है | उस जमाने के सार्वजनिक जामुन, आम, खजूर सब खतम हो गए | नए किसी ने लगाए नहीं, अगर है तो वे हाइब्रिड बाग-बगीचे किसी के निजी है | अब नई पीढ़ी में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ी है | शासन और समाज मिलजुलकर इस ओर एक कदम आगे बढ़ाया है | लैकिन आज बहुत बड़े आन्दोलन की आवश्यकता है | पर्यावरण के राक्षसों से पंचतत्वों की रक्षा एक बड़ी चुनोती है |
उसी से उपजी कुछ पीड़ायें इस “ओटला” काव्य संग्रह में है | मालवा, राजस्थान को छोड़कर "ओटला" हिन्दी के अन्य पाठकों के लिए नया शब्द होगा | “चातुर्मास” के बाद यह मेरा दूसरा काव्य संग्रह है | हरि इच्छा, कब तक यह संग्रह पुस्तक के आकार में जन्म लेता है | इसी में हर दिन एकाध घंटा पिछले एक माह व्यस्त था | इसीलिये फेसबुक के मित्रों से लम्बे समय बाद प्रत्यक्ष भेंट हो रही है | सभी को राम-राम |
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